Sunday, September 15, 2019

यही तो अंत है

खड़ा हूं वहां
जहां सब दिख रहा है
क्या नहीं है आज
जो ना बिक रहा है
बोझिल सा खुद को लिए
हर कोई चल रहा है तन के
मरणासन्न मस्तिष्क में पलते
अहंकार खुद ही के मन्न के
ज्ञान बिकता हर ओर
फिर भी कम सा क्यूं लगता
जो सब में दुंढे वो अक्सर
वो खुद में क्यों ना दिखता
बोली लगती जज़्बातों की
बिक चला अब हर इंसान
खोखले अस्तित्व को लिए फिरे
रखता समेटे झूठी शान
कमी नहीं है कुछ भी
फिर भी हाथ खाली ही दिखते
पता नहीं पाना क्या है फिर भी
सपने धीमी आंच पर ही सकते
कमजोर पे हावी होना
आज भी उसकी कमजोरी है
गलती से भी गलती ना दिखे
साफ नहीं पर दिखना ज़रूरी है
जाने किस हिसाब में है फसा
बिगाड़े खुद का खाता
बढ़ रही है दूरियां खुद से
जाने क्यूं नजर नहीं आता
वक़्त तो कभी कम ना था
ज़रूरतें ही हैं जो ना होती पूरी
फसा रहता खत्म होते सब्र में
वो जीता ज़िन्दगी कब से अधूरी
खुद से खुद में बढ़ता
जाने ये कैसा द्वंद है
ज़िद से आता थोड़ा जल्दी में
धूमिल सा दिखे यही तो अंत है

Unbound

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